दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि

दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।

दिशो न जाने न लभे च शर्म

प्रसीद देवेश जगन्निवास।।11.25।।

danṣhṭrā-karālāni cha te mukhāni dṛiṣhṭvaiva kālānala-sannibhāni diśho na jāne na labhe cha śharma prasīda deveśha jagan-nivāsa

।।11.25।। आपके प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित और दाढ़ोंके कारण विकराल (भयानक) मुखोंको देखकर मुझे न तो दिशाओंका ज्ञान हो रहा है और न शान्ति ही मिल रही है। इसलिये हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये।

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