यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि

विहारशय्यासनभोजनेषु।

एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं

तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।।11.42।।

yach chāvahāsārtham asat-kṛito ’si vihāra-śhayyāsana-bhojaneṣhu eko ’tha vāpy achyuta tat-samakṣhaṁ tat kṣhāmaye tvām aham aprameyam

।।11.41 -- 11.42।। आपकी महिमा और स्वरूपको न जानते हुए 'मेरे सखा हैं' ऐसा मानकर मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे भी हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) 'हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे !' इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत ! हँसी-दिल्लगीमें, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समयमें अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुम्बियों आदिके सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है, वह सब अप्रमेस्वरूप आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ ।

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